समाज में मानवीय संम्बंधों के बीच बढ़ते अविस्वाश और टूटते रिश्तों को रोकने का एक मात्र उपाय

मेरा यह लेख समर्पित है मेरे मित्र अमित जी को, जिनकी प्रेरणां से मैं इस विषय पर प्रकाश डाल रहा हूँ, आज हमारे पारिवारिक तथा सामाजिक संबंधों के टूटने तथा बढ़ती दूरियों के लिए मूलतः हमारी जीवन के प्रति हमारी दृष्टि अर्थात हमारे जीवन मूल्य जिम्मेवार है। अधिकतर हम आज व्यक्ति को उसके आर्थिक, सामाजिक, राजनीतिक तथा धार्मिक इत्यादि जीवन में उसकी उपलब्धियों तथा ख्याति के आधार पर उसका मूल्यांकन करते हैं और इसी के आधार पर ही उसके साथ अपने संबंधों को रखते हैं | अधिकतर आज हमारे पारिवारिक तथा सामाजिक संबंधों के प्रति हमारा जीवन दृष्टिकोण सर्वप्रथम स्वयं का स्वार्थसिद्ध करना है | मानवीय संबंधों का आधार जब भी स्वयं का स्वार्थसिद्ध करना मूल रूप से होगा तो स्वार्थसिद्धी के उपरांत भी वह सम्बन्घ निरंतर रहेगा इसकी कम ही सम्भावना है, इसको हम इस प्रकार भी कह सकते हैं कि हम केवल अपने मतलब के लिए ही सम्बन्ध रखते हैं जो मतलब निकल जाने पर भी चलता रहे, इसकी सम्भावना नहीं के बराबर ही होती है | अगर हम जीवन के...