हमारे जीवन में शाश्वत विस्वाश का आधार
आप सभी मेरी इस बात से सहमत होंगे कि जिस विस्वाश का अंकुरण हमारी चेतना में हमारे खुद के जीवन निर्माण कि प्रक्रिया के द्वारा होता उसका अस्तित्व शाश्वत होता है |
जब भी हमारे विस्वाश का आधार बाहरी होगा, तब हमारा विस्वास शाश्वत न हो सकेगा | विस्वाश के बाहरी होने को हम इस प्रकार समझ सकते हैं , जैसे हम प्रेरणाप्रद किताबों , महापुरुषों की जीवनियों, सत्संग आदि का बारम्बार अध्ययन व् संगती कर हम अपने विस्वास को सुद्रण करने का प्रयास करते हैं, जब कभी भी हमारी देशकालिक परिस्थितियां बदलती है , हमारे विस्वाश में परिवर्तन व् व्यक्तित्व की मूल चेतना के साथ टकराव होने की पूरी सम्भावना होती है |
यहाँ इस बात को उल्लेखित करना आवश्यक हो जाता कि महापुरुषों के जीवन परिचय से सम्बंधित किताबें , हमारे ग्रन्थ तथा प्रेणास्पद किताबें इत्यादि हमारे लिए एक प्रकाश स्तम्भ के समान है , जिसकी रोशनी में हम अपने जीवन से सम्बंधित हर पहलु को उसके मूल स्वरुप में देखने में समर्थ हो सकते हैं , परन्तु यहाँ मत्वपूर्ण है कि हमारा व्यक्तित्व हमारे मूल स्वाभाव के अनुकूल हो, तभी उपरोक्त वर्णित पुस्तके हमारे लिए एक प्रकाश स्तम्भ के सामान हो सकेंगी अन्यथा हमारे लिए इनका उपयोग विशेष न हो सकेगा |
इस उदाहरण के द्वारा भी हम इस बात को समझ सकते हैं जैसे कुम्हार कच्ची मिटटी को अपनी मनचाही आकृति देने में समर्थ होता है, परन्तु जब कच्ची मिटटी से बनी वह आकृति कुम्हार के भट्टे में पक जाती है तो उस आकृति का रूप परिवर्तन करना असम्भव होता है, अगर हम परिवर्तन करने की कोशिश भी करें तो उसके टूटने की सम्भावना अधिक होती है इस उल्लेख में कुम्हार द्वारा मिटटी को आकृति देना एक प्रकार से स्वाभाविक विकास है परन्तु फिर उसमें परिवर्तन करना अस्वाभाविक है |
इन्ही सब बातों को समझते हुए हम अपने सकारात्मक नजरिए और जीवन निर्वाह की श्रेष्ठतम आचार संहिता के द्वारा अपने बच्चों का विकास करते हैं ताकि उनमे आत्मविश्वास का जनम खुद उनके विकास द्वारा स्वाभाविक ही हो जो की उनके मूल स्वाभाव के अनुकूल तथा शाश्वत हो |
Thanks your appreciation to my blog.
ReplyDeleteGood thought
ReplyDeleteWah kiya bat he
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