सामाजिक परिवेश में वैराग्य की उपयोगिता
सामाजिक परिवेश में वैराग्य की उपयोगिता
वर्तमान में वैराग्य के संदर्व में व्याप्त आम धारणा यह है कि अपने घर -परिवार तथा समाज के प्रति अपने उत्तरदायित्व को छोड़ कर किसी अनजान जगह में रहते हुए भिक्षा मांग कर अपना जीवन निर्वाह करना | वैरागी जीवन का यह रूप समाज द्वारा भी पूर्णरूप से स्वीकार होगा एक मृगमरीचका के समान ही है |
भारतीय दर्शन में वैराग्य के विषय में मुख्य तौर पर दो सिद्धांत सामने आतें है, एक यह कि संसार एक ऐसा मायाजाल है जहाँ पर हम इसके नश्वर रूप को अखंड सत्य मानते हुए इसे अपने जीवन मूल्यों में उतार कर जीवन जीते हैं तथा दूसरा यह कि हमारा जीवन नश्वर है |
उपरोक्त उल्लखित शाश्वत सिद्धांतो में निहित सन्देश मुख्यतौर पर यही है कि हम संसार के परिवर्तनशील तथा अस्थिर गुणों के साथ मानव जीवन की नश्वरता को समझते हुए अपने जीवन में ऐसा आचरण करें जो हमारे साथ-साथ लोककल्याणकारी भी हो | जीवन के इस शाश्वत सत्य का ज्ञान हमें अक्सर शमशान भूमी में तब होता है, जब वहां पर हम जीवन का अंतिम रूप देखते हैं और इस बात से बोधित होते कि हमारी मृत्यु के साथ ही इस भौतिक जगत में हमारे द्वारा अर्जित किये हुए ऐशो - आराम की सभी भौतिक सम्पदाओं का महत्व भी हमारे लिए समाप्त हो जाएगा, अगर हमारी कोई जीवंत पहचान रह पाएगी तो वह होगी हमारे अपने जीवन में समाज के लिए किये हुए कल्याणकारी कार्य ही होंगे जिन्हें हमारी मृत्यु के बाद भी याद किया जायेगा | अतः हमें अपने जीवन काल में जीवन के अपरिवर्तनशील गुणों को अपने आचरण में उतारते हुए आदर्शतम व्यवहार करना चाहिए जो सदा मनुष्य जीवन को सकारात्मक प्रेरणा देने का स्रोत बनेंगे |
यहाँ पर यह विचारणीय होगा कि मनुष्य समाज के धर्म ग्रंथो में जीवन के अंतिम सत्य "मृत्यु " के सोपान को भी इस रूप में परिभाषित किया गया है, कि मृत्यु द्वारा जीवन के नश्वर होने को मनुष्य अपने चेतन में रखते हुए जीवन के अनश्वर मूल्यों जैसे सत्य, प्रेम, करुणा, दयाभाव तथा सभी मनुष्यों में एक ही चेतना का विस्तार इत्यादि को अपने जीवन में उतारकर जो सामाजिक व्यवहार करेगा वह अनश्वर होगा |
अगर हम वैराग्य में निहित सन्देश को श्रीमद्भगवतगीता के कर्मयोग का पर्याय माने तो यह गलत नहीं होगा | कर्मयोग का सिद्धांत मनुष्य समाज को एक अद्वितीय उपहार है | कर्मयोग का सिद्धांत हमें निष्काम कर्म करने के लिए प्रेरित करता है, इसका अर्थ हुआ हम कर्म तो करें परन्तु फल की इच्छा नहीं करें | सरल शब्दों में कहूं तो कर्मयोग का सिद्धांत हमें हर बंधन से मुक्त करता है | यह बात तो स्वम सिद्ध है कि हम जिस ध्येय को सामने रखकर कोई कर्म करते हैं, और वह ध्येय उक्त कर्म करने पर भी प्राप्त नहीं हो तो हमें दुःख होता है, और वह ध्येय मिल जाये तो खुशी होती है | इस प्रकार हम स्वम ही खुद को कर्मफल के बंधन में बांध लेते हैं |
वैराग्य द्वारा ऐसा जीवन दर्शन हमारे समक्ष आता है जहाँ पर कर्म तो होगा परन्तु यह स्वाभाविक और किसी मंतव्य से स्वतंत्र होगा, मतलब राग अर्थात लगाव के बिना | यह कहना गलत नहीं होगा कि जब हम अपने कर्म के फल के प्रति कोई आसक्ति ही नहीं रखेंगे तो अब उस कर्म का फल कुछ भी हो हमें तकलीफ नहीं होगी | इस प्रकार हमें यह स्पष्ट दीखता है कि वैराग्य के भाव को हम अपने जीवन में उतारकर जीवन के असंख्य दुखों से छुटकारा प्राप्त कर सकते हैं |
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